चंद्रयान का सफर : क्यों लगते हैं चार की बजाय 42 दिन!
नई दिल्ली। धरती से चांद की 3.83 लाख किमी दूरी सिर्फ चार दिन में पूरी हो सकती है। किसी भी अंतरिक्ष यान को सीधे नहीं भेज कर क्यों उसे धरती के चारों तरफ चक्कर लगाने के लिए छोड़ दिया जाता है? नासा अपने यान को चंद्रमा पर करीब चार दिन में पहुंचा देता है, लेकिन इसरो क्यों 40-42 दिन लेता है? वजह दो है। पहली ये कि धरती के चारों तरफ घुमाकर यान अंतरिक्ष में भेजने की प्रक्रिया सस्ती पड़ती है। नासा की तुलना में इसरो के प्रोजेक्ट सस्ते होते हैं और मकसद भी पूरा हो जाता है। दूसरा कारण है यान को धरती की गति और ग्रैविटी का फायदा मिलना।
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लागत में बड़ा अंतर
साल 2010 में चीन का चांगई-2 चार दिन में चांद पर पहुंच गया था। सोवियत संघ का लूना-1 सिर्फ 36 घंटे में चांद तक पहुंच गया था। वहीं, अमेरिका का अपोलो-11 तीन एस्ट्रोनॉट्स को लेकर करीब साढ़े चार दिन में पहुंच गया था। चीन के मिशन की लागत थी 1026 करोड़ रुपए. स्पेसएक्स के फॉल्कन-9 रॉके ट की लॉन्चिग की कीमत 550 करोड़ से लेकर 1000 करोड़ तक होती है, जबकि इसरो के रॉके ट की लॉन्चिग कीमत 150 से 450 करोड़ तक ही होती है।
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ग्रैविटी का फायदा उठाता है रॉकेट
रॉकेट को अंतरिक्ष में भेजने के लिए जरूरी है कि उसे धरती की गति और ग्रैविटी का लाभ दिया जाए। धरती की दिशा में उसकी गति के साथ तालमेल बिठाकर उसके चारों तरफ चक्कर लगाने से ग्रैविटी पुल कम हो जाता है। ऐसे में यान के गिरने का खतरा कम हो जाता है। धरती अपनी धुरी पर करीब 1600 किमी प्रतिघंटा की गति से घूमती है। इसका फायदा रॉकेट या अंतरिक्ष यान को मिलता है। वह धरती के चारों तरफ घूमते हुए बार-बार ऑर्बिट मैन्यूवरिंग करता है यानी अपनी कक्षा बदलता है।