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आजादी के 75 साल बाद भी रेलवे कनेक्टिवटी से आखिर क्यों महरूम राजस्थान के ये 3 प्रमुख जिले ? भौगोलिक समस्या से ज्यादा ‘राजनीतिक पेचीदगियां’ !

02:52 PM Apr 12, 2023 IST | Jyoti sharma

आजादी के 75 साल बाद भी आखिर क्यों राजस्थान के 3 प्रमुख जिले करौली, टोंक और बांसवाड़ा रेलवे कनेक्टिवटी के लिए तरस रहे। आज जब हम 21वीं सदी में जी रहे हैं और आधुनिक विकास के इस दौर में सबकुछ हाई स्पीड से चल रहा है तो फिर क्यों इन तीनों जिलों के लोग अभी भी सफर के लिए सिर्फ रोडवेज बसों के धक्के ही खा रहे हैं? क्यों उन्हें एक रेलवे स्टेशन की सौगात नहीं मिल पा रही है ? क्यों  ट्रेनों की कनेक्टिविटी से इतनी दूर हैं? 

पर्यटन के लिहाज से प्रमुख हैं ये जिले 

यह सवाल इसलिए खड़े होते हैं क्योंकि रेलवे स्टेशन किसी जिले की मूलभूत सुविधाओं की सबसे बड़ी प्रमुखता है। क्योंकि इससे कनेक्टिविटी तो रहती ही है लोगों को आने जाने की समस्या से भी दो-चार नहीं होना पड़ता। तीसरी बात यह कि तीनों ही क्षेत्र धार्मिक और पर्यटन के नजरिए से काफी महत्वपूर्ण हैं। करौली में कैला देवी, बालाजी, श्री महावीरजी तीर्थ स्थल हैं तो वही बांसवाड़ा में मानगढ़ धाम प्रमुख स्थल है। यहां बड़ी संख्या में पर्यटकों का आना-जाना है जिससे इन जिलों के राजस्व में इजाफा होता है। सरकार को अच्छा रिटर्न मिलता है। इसके बावजूद रेलवे स्टेशन का ना होना कई सवाल खड़े करता है।

भौगोलिक नहीं राजनीतिक समस्या 

सबसे पहले बात करौली की करते हैं। करौली एक पहाड़ी इलाका है। डांग क्षेत्र कहे जाने वाले इस जिले में मां कैला देवी और श्री महावीरजी प्रमुख तीर्थ स्थल हैं। यहां हर साल करोड़ों की संख्या में लोग अपना माथा टेकने आते हैं लेकिन यहां आने के लिए उन्हें या तो गंगापुर रेलवे स्टेशन पर उतरना पड़ता है या फिर हिंडौन रेलवे स्टेशन पर उतरना पड़ता है। इसके बाद उनके पास यहां तक आने के लिए निजी बसें या रोडवेज के अलावा और कोई साधन नहीं है जिससे कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

रेलवे प्रोजेक्ट पड़ा है ‘फ्रीज’

थोड़ा पीछे जाएंगे तो पता चलेगा कि करौली में रेलवे स्टेशन ना बनने के पीछे धौलपुर-सरमथुरा नैरो गेज कन्वर्जन कार्य को फ्रीज कर देना है। राइट टू इनफार्मेशन में रेलवे ने यह जानकारी दी कि धौलपुर सरमथुरा नैरो गेज कन्वर्जन का काम फ्रिज कर दिया गया है। जिससे यहां रेलवे लाइन नहीं बिछाई गई है। यह काम धौलपुर-सरमथुरा-तांतरपुर रेलवे लाइन प्रोजेक्ट के तहत किया जा रहा था लेकिन इस लाइन को हेरिटेज के रूप में ऐसे ही रखने को लेकर इस काम को रोक दिया गया। यह प्रोजेक्ट साल 2013 में कांग्रेस की सरकार में शुरू किया गया था जब ममता बनर्जी रेल मंत्री थीं। खुद उन्होंने धौलपुर में इस प्रोजेक्ट का शिलान्यास किया था।

राज्य और केंद्र का नहीं बैठा तालमेल 

हालांकि रेलवे ने सर्वे कराकर अतिरिक्त लाइन बिछाने का प्रस्ताव भी बनाया था लेकिन तत्कालीन राज्य सरकार और रेलवे बोर्ड में इस प्रोजेक्ट को लेकर बातचीत ही नहीं हो पाई। जिससे यह प्रोजेक्ट ठंडा पड़ गया। अगर साल 2013 से इस पर काम शुरू हो गया होता तो साल 2022 तक यह पूरा हो गया होता और अब तक करौली को उसका रेलवे स्टेशन भी मिल गया होता।

जानकारों का कहना है कि यहां भौगोलिक स्थिति से ज्यादा राजनीतिक हालातों ने रेलवे स्टेशन के काम को ठंडे बस्ते में डाला हुआ है। क्योंकि प्रोजेक्ट पर केंद्र सरकार और राज्य सरकार में आज तक सहमति ही नहीं बन पाई। जब प्रदेश में वसुंधरा राजे की सरकार थी तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। कन्वर्जन के काम को लेकर प्रदेश सरकार अपनी मंशा ही व्यक्त नहीं कर पाए कि उसे इस हेरिटेज स्थिति को यथावत रखना है या फिर बदलना है। 

तो वहीं करौली के विधायक-सांसदों ने भी रेलवे स्टेशन की मांग को उस मजबूती से प्रस्तावित नहीं किया, जितनी वहां के लोगों को इस स्टेशन की जरूरत थी। इस कार्य में हीलाहवाली के चलते करौली आज भी रेलवे लाइन और रेलवे स्टेशन को तरस रहा है।

खर्चे पर आकर रुका बांसवाड़ा का प्रोजेक्ट  

बात अगर हम अब बांसवाड़ा की करें तो यहां साल 2011 में कांग्रेस की सरकार के साथ समय रतलाम-बांसवाड़ा-डूंगरपुर रेलवे ट्रैक का शिलान्यास किया गया था। खुद सोनिया गांधी ने इसका शिलान्यास किया था लेकिन केंद्र और प्रदेश सरकार के बीच इस प्रोजेक्ट को लेकर तालमेल नहीं बैठ पाया। जिसमें जमीन और मुआवजा की समस्या भी शामिल थी, इससे यह प्रोजेक्ट धीरे-धीरे बंद होता चला गया।

दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह थी कि राज्य सरकार ने बांसवाड़ा में रेलवे स्टेशन बनाने का प्रस्ताव केंद्र के सामने ना मजबूती से रखा ना ही इसके लिए बार-बार प्रस्ताव दिए गए। साल 2011 के रेलवे बजट में इस परियोजना की घोषणा की गई थी। इसे साल 2017 तक पूरा हो जाना था। इस घोषणा के तहत केंद्र और राजस्थान सरकार इस परियोजना में 50-50% की हिस्सेदारी करते।

प्रदेश ने हिस्सेदारी से खींचे हाथ  

पहले तो राजस्थान सरकार ने अपने हिस्से की राशि दी लेकिन बाद में हिस्सेदारी देने से मना कर दिया। राजस्थान के हाथ पीछे खींच लेने के चलते यह काम बंद हो गया और अब बंद ही पड़ा हुआ है। इसे लेकर बांसवाड़ा सांसद कनकमल कटारा ने रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव से इस परियोजना को फिर से शुरू करवाने की अपील की है। साथ में उन्होंने यह भी कहा है कि राज्य सरकार पैसे नहीं देना चाहती तो इसका पूरा खर्चा केंद्र सरकार उठाए लेकिन इस परियोजना को शुरू करवाए।

क्योंकि इससे काफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। लोगों को आने-जाने में समस्याएं आती हैं। लोगों की नजर में केंद्र सरकार के प्रति गलत छवि को भी बनती है। इसलिए इस प्रोजेक्ट को चालू करना हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए।

टोंक रेलवे लाइन के लिए जमकर हुई राजनीति 

वहीं टोंक जैसे शहर में भी रेलवे स्टेशन का ना होना किसी को भी हजम नहीं होता है। आजादी के इतने साल बाद भी इस जिले में एक रेलवे स्टेशन नहीं है। जबकि आस-पड़ोस किस जिले रेलवे लाइन से लैस हैं और रेलवे स्टेशन भी हैं। इन के कारणों पर जाएं तो पता चलता है कि जब केंद्र में सीके जाफर शरीफ रेल मंत्री थे, तब तत्कालीन टोंक सांसद बनवारी लाल बेरवा ने यहां रेलवे स्टेशन बनाने की मांग की थी। तब शरीफ ने यह कहकर मना कर दिया कि हम यहां पर रेलवे स्टेशन नहीं बना सकते।

ये हैं दो कारण 

इसके लिए उन्होंने दो कारण भी गिनाए थे। जिसमें उन्होंने कहा था कि रेलवे लाइन वहां बिछाई जाती है जहां आर्थिक दृष्टि से ज्यादा नुकसान नहीं हो और बिना किसी आर्थिक दृष्टि के रेल अगर बिछाई जाती है जहां सेना के लिए सामान और आवाजाही होती है।  ना तो टोंक से सेना के लिए सामान भेजा जाता है। दूसरे यहां पर रेलवे स्टेशन बनाने से आर्थिक नुकसान का ज्यादा सामना करना पड़ेगा।

बाद में भी हुए कई प्रयास 

हालांकि जब नमो नारायण मीणा केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री और सांसद बने तो उन्होंने रेल बजट में इस स्टेशन के लिए प्रावधान करवाया लेकिन इसमें जो प्रावधान किए गए थे उसके मुताबिक रेल लाइन बिछाने के लिए जो खर्च होगा उसका आधा और जमीन राज्य सरकार को अवाप्त करा कर दी जाएगी। इस पर प्रदेश सरकार ने हामी नहीं भरी लेकिन तत्कालीन अशोक गहलोत की सरकार ने अपने कार्यकाल के आखिर में इस शर्त को मंजूर कर लिया था लेकिन उसके बाद जब चुनाव हुए तो भाजपा सरकार आई और इस प्रोजेक्ट को फिर से ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। 

मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने तो इसे केंद्र का मामला बताकर अपना पल्ला झाड़ लिया था। क्योंकि वे इन प्रावधानों को पूरा नहीं कर पा रहे थे। हालांकि टोंक के तहसीलों को जोड़ने के लिए साल 1989-90 में सांसद गोपाल पचेरवाल के समय चौथ का बरवाड़ा से वनस्थली और निवाई होते हुए रेलवे लाइन बिछाने की योजना पर काम शुरू हुआ। इसके बाद साल 2010 में अजमेर से टोंक और सवाई माधोपुर होते हुए देवली-टोंक-सकतपुरा की संभावनाएं खोजी गईं लेकिन अभी तक ना तो यह काम पूरा हुआ है और ना ही इसका शिलान्यास तक हुआ है। क्योंकि पेंच वहीं फंस जाता है जहां ये प्रावधान बनाए गए थे। क्योंकि ये प्रावधान कांग्रेस या बीजेपी में से कोई भी सरकार पूरा नहीं कर पा रही है।  राज्य सरकार इस पर आर्थिक स्थिति का हवाला देती है। तो केंद्र पूरा खर्चा उठाने से मना ही कर देता है।

प्रधानमंत्री के बयान से फिर जागी उम्मीद 

इन तीनों जिलों के यह मुख्य कारण रेलवे स्टेशन और रेलवे लाइन से लोगों को यहां की जनता को महरूम रख रहे हैं जो कि कहीं से भी ठीक नहीं है। क्योंकि आज के जिस दौर में हम जी रहे हैं वहां पर रेलवे स्टेशन से कनेक्टिविटी का होना बेहद जरूरी है। भले ही वहां पर सेना का सामान ना जाए या आवाजाही ना हो लेकिन लोगों की आवाजाही तो जारी ही रहती है। इसके अलावा राजस्थान पर्यटन प्रधान प्रदेश है। यहां पर पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता है। जिससे प्रदेश की जीडीपी में काफी हिस्सेदारी रहती है।

 इसे देखते हुए रेलवे स्टेशन का बनाना काफी मायने रखता है हालांकि आज जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इन तीनों जिला मुख्यालय में रेलवे स्टेशन बनाने की मांग प्रधानमंत्री मोदी से की तो उन्होंने भी कहा कि जब आजादी के बाद जो काम हो जाना चाहिए था वह अब तक नहीं हुआ और आपका मुझ पर भरोसा है तो यह काम जल्द पूरा होगा। जिससे एक उम्मीद तो जगी है कि शायद अब करोली, बांसवाड़ा और टोंक को हमको भी अपना रेलवे स्टेशन मिल जाएगा।

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