Varahi Devi: भूटान में चुम्फुनी की पहाड़ी पर है मंदिर, हवा में तैरती है वज्र वाराही देवी
सनातन संस्कृति ने अपने विभिन्न आयामों के चिह्न इस सकल धरा पर छोड़े हैं। इन्हीं विभिन्न भारतीय संस्कृति की मेधा, प्रज्ञा और विवेक के प्रतीक के रूप में भूटान में भी ऐसा ही करिश्मा सदियों से स्थापित है। गुजरात के सोमनाथ में हवा में तैरते हुए सोमेश्वर भगवान शिव के लिंग की भांति ही भूटान में भी देवी वज्र वाराही (Varahi Devi) की मूर्ति स्थापित है। वाराही देवी ऐसी हिन्दू देवी हैं, जो सृजन की सर्वव्यापी शक्ति के स्त्री पहलू का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो सभी चेतन और निर्जीव प्राणियों में निहित है।
वह सात मातृकाओं में से एक है, जो शक्ति के रूप में मौजूद हैं। श्री वाराही देवी भगवान विष्णु के वराह अवतार की महिला समकक्ष हैं। देवी उत्तरी दिशा की अधिष्ठात्री हैं और वैष्णवों, शैवों और शाक्तों सहित अधिकांश हिंदू संप्रदायों द्वारा पूजनीय हैं। गुप्त वाममार्गतांत्रिक प्रथाओं का उपयोग करते हुए वाराही देवी की पूजा अक्सर रात में की जाती है। उसे नेपाल में बरही कहा जाता है और बौद्ध देवी वज्रवाराही और मरीचि को भी व्यापक रूप से देवी का ही एक रूप माना जाता है।
कुछ बौद्ध भिक्षु, जो शास्त्रज्ञ (दिव्य ज्ञान की लड़ाई) की लड़ाई हार गए थे, हिंद धूर्म में वापस आ गए और बाद में अपने साथी बौद्ध भिक्षुओं को इन रहस्यों को उजागर किया। वाराही देवी की पूजा हिंदू धृर्म के सभी तीन प्रमुख मार्गों द्वारा की जाती है: शक्तिवाद (देवी पूजा), शैववाद (भगवान शिव के अनुयायी) और वैष्णववाद (विष्णु की भक्ति)। यह आमतौर पर रात में की जाती है।
मूर्ति और सतह के बीच एक अंगुली जितनी जगह
अनेक प्रत्यक्षदर्शी जो भूटान के वज्र वाराही मंदिर में दर्शनार्थ गए हैं, उनका कहना है कि वाराही देवी की मूर्ति और सतह के बीच एक अंगुली जितनी जगह है और मूर्ति बिना सपोर्ट के हवा में तैरती है। वर्तमान में पृथ्वी पर यही एकमात्र हिंदू मंदिर हैं, जहां प्रतिमा को हवा में तैरते देखा जा सकता है। भूटान में बौद्ध दोरजे फागमो टुलकु ने शाक्त धर्म की परंपरा को भूटान में स्थापित किया था।
प्रतिमा की फोटो लेने की अनुमति नहीं, बौद्ध भिक्षु ही खोलता है मंदिर के पट
भूटान के मुख्य शहर थिम्फू से लगभग 24 घंटे की दूरी पर पारो में चुम्फुनी में देवी मां वज्र वाराही की फ्लोटिंग मूर्ति मंदिर में स्थापित है। यह पहाड़ की चोटी पर स्थापित है। मंदिर में प्रतिमा की फोटो लेने की अनुमति नहीं है। भूटान में इस मंदिर में बौद्ध भिक्षु द्वारा ही मंदिर के पट खोले जाते हैं, फिर देवी वज्रवाराही की मूर्ति को दिखाते हुए भिक्षु द्वारा कहा जाता है कि ‘देवी की प्रतिमा तैर रही है’ और मूर्ति के पैर के नीचे एक कागजी मुद्रा का नोट खिसकाकर वह इसे साबित करते हैं। इस अद्तभु प्रतिमा को देखकर श्रद्धालु मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।
भूटान में यह ऐसी देवी मूर्ति है, जो किसी भी चमत्कार से कम नहीं है। मंदिर पर जाने के लिए 16 किलोमीटर की आने जाने की यात्रा करनी पड़ती है। बहुत ही घने जंगल में 2000 से 2500 मीटर की ऊंचाई पर पहाड़ी पर यह मंदिर स्थित है। इस पर पहुंचना बहुत मुश्किल है, रास्ता बड़ा दुर्गम है, अगल-बगल के पहाड़ों से पानी भी तेज गति से बहता रहता है और बहुत ही कठिन यात्रा मार्ग से गुजरना पड़ता है। यहां पहुंचना बहुत ही हिम्मत का काम है।
हवा में तैरता था सोमनाथ का शिवलिंग
चुंबक का गुण होता है कि उसके विपरीत ध्रुव एक-दूसरे को आकर्षित करते है और समान ध्रुव एक-दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं। हर चुंबक के 2 ध्रुव होते हैं उत्तर और दक्षिण ध्रुव। उत्तर ध्रुव, दक्षिण ध्रुव को या दक्षिण ध्रुव, उत्तर ध्रुव को आकर्षित करता है। लेकिन उत्तर ध्रुव, उत्तर ध्रुव को या दक्षिण ध्रुव, दक्षिण ध्रुव को धकेलता है। यही नियम बुलेट ट्रेन को चलाने में भी उपयोग में लाया जाता है। सोमनाथ ज्योतिर्लिंग भी इसी आधार पर हवा में अधर स्थापित किया गया था।
इसी तकनीक का उपयोग हिन्दू राजाओं ने प्राचीनकाल में अपने मंदिरों में किया। गुजरात का सोमनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंग में से एक है। इस मंदिर को गुजरात के यादव राजाओं ने 600 ईस्वी में बनवाया था, लेकिन कई मुस्लिम शासकों ने इसे कई बार तोड़ा और इसमें स्थित शिवलिंग को भी हानि पहुंचाई। हिंद पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सोमनाथ मंदिर का शिवलिंग हवा में तैरता था। इतिहासकारों ने इस बात की सत्यता पर अपनी मुहर लगाई है।