1857 में जली आंदोलन की लौ को 1947 में मिली मंजिल, भारत छोड़ो आंदोलन से हिल गई थी अंग्रेजी हुकूमत
Independence Day 2023 : जयपुर। पूरा देश 15 अगस्त यानी कल स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाएगा। लहराते हुए तिरंगे को देखकर मन देश भक्ति के भाव और गर्व से भर जाता है। 15 अगस्त 1947 के दिए देश को आजादी मिली। स्वतंत्रता के मायने हमने समझे और उसे अपनाया। लेकिन ये स्वतंत्रता एकाएक एक दिन में नहीं मिली। अंग्रेजों की दशकों की हुकूमत को भारतीयों से बराबर टक्कर मिलती रही। आजादी की आग मन ही मन सुलगती रही।
साल 1857 से शुरू हुए विद्रोह ने लोगों के मन में एक उम्मीद और हिम्मत की डोर बांधी। इसी डोर के सहारे आंदोलन आगे बढ़ता रहे। एक के बाद एक कई आंदोलनों से होता हुआ देश आखिरकार साल 1947 में स्वतंत्रता हासिल कर पाया। सोचिए कि अगर ये आंदोलन ना होते तो यह आजादी मिलना कितना संभव था।
आंदोलन की लौ 1857 में जली
अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई 1857 का विद्रोह था। 10 मई 1857 को मेरठ में विद्रोह शुरू हुआ। धीरे-धीरे, दिल्ली, आगरा, कानपुर और लखनऊ के लोग इसमें शामिल हो गए। यह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में पहला कदम था और भारतीय स्वतंत्रता के लिए पहला अभियान था, लेकिन यह काम नहीं आया। 1857 का विद्रोह विफल हो गया क्योंकि स्थानीय लोग इसमें शामिल नहीं हुए और कोई कें द्रीय नेतृत्व नहीं था। कई भारतीय राजा, जैसे कश्मीर के महाराजा और इंदौर के होलकर, ग्वालियर के सिंधिया भी इसमें शामिल नहीं हुए। 1858 में ब्रिटिश क्राउन ने कं पनी की शक्तियां अपने हाथ में ले लीं। यहीं से भारत में राष्ट्रवादी आंदोलनों की श्रृंखला शुरू हुई, जिससे भारत में बड़े स्वतंत्रता आंदोलन शुरू हुए।
कोलकाता से शुरू हुआ स्वदेशी आंदोलन
इसके बाद स्वदेशी आंदोलन एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन था जो 20वीं सदी की शुरुआत में भारत के कोलकाता में शुरू हुआ था। 7 अगस्त, 1905 को कोलकाता टाउन हॉल में एक बैठक में बहिष्कार प्रस्ताव पारित किया गया। स्वदेशी आंदोलन का लक्ष्य लोगों को ब्रिटिश वस्तुओं के बजाय भारतीय वस्तुओं और सेवाओं का उपयोग करने के लिए प्रेरित करना था। इससे भारत की अर्थव्यवस्था बेहतर हुई और अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिला कि भारतीय अपने दम पर रह सकते हैं।
भारत छोड़ो आंदोलन ने हिलाई अंग्रेजी सरकार
भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत 08 अगस्त 1942 को हुई थी। इस आंदोलन का नेतृत्व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने किया था। महात्मा गांधी ने 08 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बॉम्बे (अब मुंबई) अधिवेशन में इसकी शुरुआत की थी। भारत छोड़ो आंदोलन अंग्रेजी हुकू मत के खिलाफ काफी प्रभावशाली साबित हुआ और शासन की नींद उड़ गई थी। भारत छोड़ो आंदोलन का प्रभाव देशवासियों पर काफी गहरा पड़ा था।
महात्मा गांधी ने इस आंदोलन के दौरान ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। करो या मरो के नारे ने लोगों को इस तरह प्रभावित किया कि अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ा। आंदोलन की शुरुआत करते हुए, गांधीजी ने कहा कि अंग्रेजों को अब तुरंत भारत छोड़कर चले जाने चाहिए। भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत के अगले ही दिन यानी कि नौ अगस्त को अंग्रेजी सरकार ने सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया। इसमें गांधीजी भी शामिल थे। इस दौरान कई लोग मारे गए थे। प्रत्येक साल उन लोगों को श्रद्धांजलि दी जाती है, जिन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अपनी जान गंवाई थे।
अमेरिका में रखी गई गदर आंदोलन की नींव
गदर आंदोलन की विधिवत शुरुआत 15 जुलाई 1913 को अमेरिका में हुई। लाला हर दयाल, संत बाबा वसाखा सिंह दादेहर, बाबा ज्वाला सिंह, संतोष सिंह और सोहन सिंह भाकना ने अमेरिका में इस आंदोलन की नींव रखी। शुरुआत में इसका नाम पैसिफिक कोस्ट हिंदुस्तान ऑर्गेनाइजेशन (PCHO) रखा गया। अमेरिका, कनाडा, पूर्वी अफ्रीका और एशियाई देशों में गदर पार्टी को बड़े पैमाने पर समर्थन मिला। जब साल 1913 में PCHO का नाम बदलकर विधिवत तौर पर गदर पार्टी का गठन हुआ तो सोहन सिंह भाकना इस संस्था के प्रेसिडेंट बने।
इस पार्टी में बहुत से प्रवासी भारतीय शामिल हुए, जिनमें से ज्यादातर पंजाबी थे। प्रवासी भारतीयों का गदर पार्टी को अच्छा समर्थन मिला। इस आंदोलन का उद्देश्य सशस्त्र कार्रवाई के जरिए ब्रिटिश शासन को भारत से उखाड़ फें कना था। गदर पार्टी मुख्य रूप से भारतीय प्रवासियों द्वारा फंडेड एक सरकार विरोधी समूह था। इस पार्टी में सिख, हिंदू और मुस्लिम भी थे, लेकिन सिखों की संख्या सबसे ज्यादा थी। बीसवीं सदी के पहले दशक में बंगाल में क्रांतिकारी घटनाओं में काफी बढ़ोतरी होने लगी।
होमरूल ने उठाई थी स्थानीय शासन की मांग
होमरूल आंदोलन ‘अखिल भारतीय होमरूल लीग संगठन’ द्वारा चलाया गया था। होमरूल का तात्पर्य एक ऐसी स्थिति से है जिसमें किसी देश का शासन वहां के स्थानीय नागरिकों के द्वारा ही चलाया जाता है। होम रूल लीग की स्थापना बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट के द्वारा वर्ष 1916 में की गई थी। इसका आंदोलन का उद्देश्य देश में स्वराज स्थापित करना था। होमरूल आंदोलन भारत के इतिहास की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक है।
यहाँ होमरूल आंदोलन के बारे में विस्तार से बताया जा रहा हैं। ऐनी बेसेंट आयरलैंड की रहने वाली थीं। वे भारत में ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ की संचालिका थीं। वह भारतीय संस्कृति से बहुत प्रभावित थी इसलिए वह अपना देश छोड़कर भारत में आ बसीं। ऐनी बेसेंट भारत को ही अपनी मातृभूमि मानती थीं। उस समय आयरलैंड में आयरिस नेता रेडमाण्ड के नेतृत्व में होमरूल लीग की स्थापना हुई थी, जो वैधानिक तथा शांतिमय उपायों से आयरलैंड के लिए होमरूल तथा स्वशासन प्राप्त करना चाहती थी। इससे प्रेरित होकर ऐनी बेसेंट ने भारत में भी होमरूल आंदोलन शुरू करने के बारे में सोचा। इसी उद्देश्य से वे भारत लौटने के बाद कांग्रेस के साथ जुड़ गईं और वर्ष 1916 में उन्होंने स्वराज के लिए ‘होमरूल आंदोलन’ की शुरुआत की।
सविनय अवज्ञा आंदोलन ने राह की प्रशस्त
अब बात सविनय अवज्ञा आंदोलन की, इसकी शुरुआत दांडी मार्चसे हुई थी, जिसे नमक सत्याग्रह के रूप में भी जाना जाता है । दांडी मार्च, मोहनदास करमचंद गांधी के नेतृत्व में शुरु हुआ अहिसं क आंदोलन था। यह नमक पर ब्रिटिश के एकाधिकार के खिलाफ शुरू हुआ,अहिसं क विरोध प्रदर्शन आंदोलन था। इसमें गांधी और उनके समर्थकों ने समुद्री जल से नमक बनाकर ब्रिटिश कानून को तोड़ा था। इस दौरान दांडी में हजारों लोगों ने उनका अनुसरण किया और बंबई एवं कराची के तटीय शहरों में, भारतीय राष्ट्रवादियों ने नमक बनाने में नागरिकों का नेतृत्व किया था।
नमक कानून तोड़ने के इस कृत्य से सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हुई थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत दांडी नमक सत्याग्रह के कारण हुई थी, जिसे नमक के उत्पादन और बिक्री पर सरकार के नियंत्रण के कारण शुरू किया गया था। इस दौरान कानून इतने सख्त थे कि अगर कोई रेत पर पड़ा एक मुट्ठी समुद्री नमक भी उठा लेता था तो उस पर जुर्माना लगाया जा सकता था। इसके अलावा वर्ष 1928 के साइमन कमीशन में किसी भी भारतीय को शामिल न करने और क्रांतिकारियों की गैरकानूनी गिरफ्तारी के कारण भी जनता के बीच राष्ट्रवादी भावना पनपने लगी थी। इस तनावपूर्ण स्थिति के आलोक में सविनय अवज्ञा आंदोलन का मार्ग प्रशस्त हुआ था।
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