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सनातन धर्म का उत्पत्ति स्थल कानबाय मंदिर, ब्रह्माजी द्वारा किया गया स्थापित

09:39 AM May 28, 2023 IST | Supriya Sarkaar
Kanbai Temple, the origin place of Sanatan Dharma, established by Brahmaji

आर्यावर्त भारत की संस्कृति यूं तो संपूर्ण विश्व को अपने में समेटे हुए है। एशिया सहित सभी महाद्वीपों के विभिन्न देशों में भारतीय संस्कृति की अमिट छाप सर्वत्र दृष्टिगत होती है। विभिन्न इतिहासकार आज तक इस निश्चय पर नहीं पहुंच सके हैं कि आखिर मूर्तिपूजा का प्रारंभ कब से हुआ, क्योंकि रामचरितमानस में भी श्री राम और सीता का प्रथम मिलन मां सीता जी का गौरी पूजा करने जाते हुए मां गौरी के मंदिर में ही हुआ था, जिसकी अवधि 7000 साल से ज्यादा है। 

पुष्कर तीर्थ ब्रह्माजी का सृष्टि का रचना स्थल रहा है। यहीं ब्रह्माजी ने तपस्या की और सृष्टि की रचना की। ऐसा माना जाता है कि पुष्कर में भगवान श्री हरि की विश्व की सबसे प्राचीन मूर्तिस्थापित है और यहीं से विश्व में मूर्तिपूजा का प्रारंभ हुआ। इस मूर्ति की आयु 41075 साल से अधिक है। कार्बन डेटिंग के अनुसार इसकी आयु 4100 वर्ष से अधिक आंकी गई है। पुष्कर तीर्थ से 8 किलोमीटर दूर सूरजकुंड गांव में कानबाय में भगवान श्री हरि की 10 फीट से अधिक लंबी मूर्ति क्षीर सागर में शयन मुद्रा में है, जिनके हाथों में गदा, चक्र, पद्म और शंख हैं। 

एक पत्थर की बनी इस विशाल मूर्ति में श्री हरि विष्णुजी विश्व में दुर्लभ नौ फन वाले शेषनाग पर लेटे हुए हैं और शेषनाग उनको छाया कर रहे हैं तथा माता श्री लक्ष्मीजी उनके चरण दबा रही हैं। यह मूर्ति काले पत्थर से बनी हुई है और विश्व की सबसे प्राचीन मूर्ति है। संस्कृत के व्याख्याता और इस मंदिर के पुरोहित महावीर वैष्णव के अनुसार सूरजकुंड गांव कानबाय स्थित इस मंदिर में एक राधा कृष्णजी की 400 साल प्राचीन मूर्ति भी स्थापित है। 

इस मंदिर में पौराणिक आख्यानों के अनुसार स्तुति के साथ प्रतिमा का नित्य पूजन होता है। सुबह विष्णु सहस्त्रनाम और संध्याकाल में गोपाल सहस्त्रनाम से पूजा की जाती है। इस मंदिर के पास पूर्व में 52000 गांवों की जागीर भी थी। द्वापर कालीन ब्रज चौरासी के गांवों की तरह इसके आस-पास के गांवों को भगवानपुरा, किशनपुरा, नांद, बांसेली, सूरजपुरा आदि नाम मिले हैं। 

आज भी विद्यमान हैं जगतपिता ब्रह्माजी द्वारा स्थापित भगवान महादेव के मंदिर 

भगवान विष्णु के आशीर्वाद से प्रजापिता ब्रह्मा की कानबाय क्षेत्र में उत्पत्ति हुई। बाद में ब्रह्मा जी ने यज्ञ करके सृष्टि की रचना की थी। इस स्थल के पास ही सृष्टि रचना के समय ब्रह्माजी द्वारा स्थापित अजगंधेश्वर महादेव (अजयपाल), ककडेश्वर महादेव, मकडेश्वर महादेव स्थापित किए गए थे, जो आज भी विद्यमान हैं। पास ही च्यवन ऋषि का आश्रम स्थल है और शकुंतला पुत्र भरत की अठखेलियों का स्थान भी उपस्थित है। समुद्र मंथन के बाद यहां भगवान विष्णु संग विराजित माता महालक्ष्मी को प्रसन्न करने और पृथ्वी वासी मनुष्यों को वरदान देने के लिए राजा इंद्र ने इंद्र सुक्त से और सप्त ऋषियों ने श्री सूक्त से स्तवन किया और भगवान ब्रह्माजी ने ऊख (गन्ने) का भोग लगा अपनी भक्ति से मां महालक्ष्मी को इसी स्थान पर प्रसन्न किया था।

ब्रह्माजी ने बताया पुण्यदायी स्थान 

यहां क्षीरसागर कानबाय में नहाकर पुष्कर की 24 कोसी परिक्रमा के प्रारंभ होने का और समाप्ति का स्थान है। त्रयोदशी के दिन ब्रह्माजी के यज्ञ में आए हुए लोगों को स्वयं ब्रह्माजी ने यहां त्रिवेणी संगम पर स्नान कर जलशायी भगवान विष्णु के दर्शन की विशेष मान्यता व पुण्यदायी स्थान बताया है।

पुराणों में भी मिलता है उल्लेख

कानबाय स्थित श्री हरि मन्दिर सतयुग में पृथ्वी पर भगवान विष्णु का प्रथम पदार्पण स्थल है। ब्रह्मा की उत्पत्ति और बाद में यज्ञ के समय यहां निवास किया। -हरिवंश पुराण पृष्ठ संख्या 939 

इस क्षेत्र में भगवान विष्णु ने एक पैर पर 10,000 वर्ष तक और भगवान शिव ने 9100 वर्ष तक तपस्या की थी। हरिवंश पुराण पृष्ठ संख्या-1012 

त्रेता युग में सनातन धर्म में मूर्ति पूजा के प्रारंभ का स्थान भी यही है। मथुरा से द्वारिका जाते हु ए भगवान श्री कृष्ण यही ठहरा करते थे। वह 7 बार यहां पधारे थे। परम पावन सरस्वती नदी पुष्कर से ही मानसागर की ओर गई है। यहां महायोगी आदिदेव मधुसूदन भगवान विष्णु सदा निवास करते हैं।-पद्म पुराण पृष्ठ संख्या 64 

त्रेता युग में भगवान श्रीराम ने माता सीता और भाई लक्ष्मण के साथ पुष्कर यात्रा की और अपने पिता का श्राद्ध किया। एक माह तक यहां निवास किया। -पद्म पुराण पृष्ठ संख्या 106 

भगवान राम रामराज्य के समय सुग्रीव और भरत के साथ पुनः पुष्पक विमान से यहां पधारे थे। -पद्म पुराण पृष्ठ संख्या 122

द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने पुष्कर यात्रा की, इस जगह को अपना निवास स्थान बनाया। उनकी उपस्थिति में जन्मोत्सव का आयोजन किया गया तथा पुनः दुर्वासा ऋषि के कहने पर हंस और डिम्भक और उनकी 10 अक्षौहिणी सेना के साथ युद्ध किया और अग्निबाण का प्रयोग कर विचक्र राक्षस को भी यही मारा -हरिवंश पुराण पृष्ठ संख्या 1328

(Also Read- चीन में भी है भगवान शिव का मंदिर, मध्यकाल में रहा हिंदू धर्म का अच्छा-खासा प्रभाव)

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